
बरसों से मन में दबी हुई थी इच्छाएं,
रचनाकार बन साहित्य जगत में नाम कमाऊं।
जगत में कई उपादान है लिखने के लिए,
सूर्य, चंद्र, तारे, नदी, फूल सब पर कुछ लिखूं
सोचना था बड़ा आसान लिखना उतना ही कठिन था,
लिखने जब बैठी तो मन में विचार आया क्या लिखूं।
विचारों का तूफान पकड़ने लगा बहुत तेजी,
सोचा बचपन को सबसे पहले अपनी लेखनी में बांधु।
अल्हड़ मन मौजी, बिंदास था मेरा बचपन,
स्वच्छता पूर्ण बचपन को विचारों में कैद कैसे करूं।
फिर याद आए जवानी के वो सुहाने दिन,
सपनों की अंगड़ाई लेता यौवन, इस पर कैसे लिखूं।
फिर विचार आया सूरज, चांद, तारे भी है यहां,
इन सुन्दर प्राकृतिक उपादानों पर ही कुछ लिखूं।
अथाह शक्ति संपन्न विचारों का पुलिंदा कहां से लाऊं,
निरंतर कर्मठता पहले अपने में आए तब लिखूं।
अलौकिक शक्ति संपन्न प्रभु की लीला याद आई,
राम के धनुष, कृष्ण की बांसुरी पर कुछ लिखूं।
लेखनी में उनकी लीला को मैं उतार ना पाई,
अनंत, असीम शक्ति का प्रवाह लेखनी में कैसे बांधु।
जन्मदात्री मां जो अनमोल धरोहर है, उनकी याद आई,
मां के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कुछ लिखूं।
तभी विचार आया मां शब्द तो शब्द सीमा से परे हैं,
कैसे उनकी ममता, त्याग और समर्पण का बखान करूं।
फिर सोचा अपने मन की बात को ही लेखनी दूं,
पर लोगों की हंसी का मैं बेवजह पात्र न बन जाऊं।
दुखी, मजबूर, बेसहारा भी समाज में दिखे मुझे,
मन में भरा है अथाह अंहकार हीन विषय पर कैसे लिखूं।
एक साहित्यकार की विडंबना है यही समाज में,
दिशा हीन हो सोचता रहता है, लिखूं तो क्या लिखूं।
डॉ. रेखा मंडलोई ‘ गंगा ‘ इन्दौर
Kavya Ganga
बहुत सुंदरअभिव्यक्त किया है 👌🏼
LikeLiked by 1 person