कभी बच्चा बन शरारत को मचलता है मेरा मन,
कभी जिम्मेदारियों के बोझ से बोझिल हो जाता है ये मन।
प्रति पल परिवर्तित भाव को काव्य रूप देता है मेरा मन,
सृजन क्षमता को विस्तार देने को आतुर रहता है मेरा मन।
समाज में व्याप्त सुंदरता को महसूस करता है मेरा मन,
सुरम्य प्रकृति में विचरण कर प्रसन्न हो जाता है मेरा मन।
दिल हो उदास तो प्रकृति में सुकून पाता है मेरा मन,
खुशहाल हो जीवन सबका यही कामना करता है मेरा मन।
स्नेह, सम्मान से झोली भरी रहे ये दुआ देता है मेरा मन,
सतत सक्रिय प्रयास कर सफलता पाता है मेरा मन।
मन की दूरियां को कर कम समरसता बहाता है मेरा मन,
मन ही ईश्वर इसकी पूजा करना जानता है मेरा मन।
सद्कार्यों में व्यस्त रख जीवन हो धन्य ये चाहता है मेरा मन,
जीवन भर साहित्य साधना में रत रहना चाहता है मेरा मन।
डॉ. रेखा मंडलोई ‘गंगा’ इन्दौर
KAVY GANGA