शैक्षणिक वातावरण के निर्माण में आवश्यक तत्व

डॉ. रेखा मंडलोई ‘गंगा’ इंदौर

‘अपनी शाला में करे हम नित नए नए आयोजन,

जिन्हें देख आनंदित हो बच्चे सफल हो प्रयोजन। ‘

शैक्षणिक वातावरण निर्माण में आवश्यक तत्वों पर चर्चा के पूर्व शिक्षण क्या है, यह समझना आवश्यक है। शिक्षण शिक्षक और विद्यार्थियों के मध्य चलने वाली पारस्परिक क्रिया (इंटरेक्शन ) हैं। श्रेष्ठ शिक्षण के लिए यह आवश्यक हैं कि बालक लर्निंग प्रोसेस में सक्रीय भाग ले। यह तभी संभव हैं जब लर्निंग प्रोसेस बालकों के दैनिक अनुभवों से सम्बन्ध रखने वाली हो। इसके लिए बालकों के आसपास के वातावरण को भी आधार बनाया जा सकता है। खेल पद्धति के प्रणेता ‘हेनरी फ़ोल्डवेल कुक’ नौनिहालों के लिए खेल-खेल में शिक्षा को बेहतर शैक्षणिक वातावरण के लिए आवश्यक तत्व मानते हैं। इस विधि द्वारा दी गई शिक्षा बालकों के मन मस्तिष्क में लम्बे समय तक सुरक्षित रहती है। विशेष रूप से नर्सरी कक्षाओं में दी जाने वाली शिक्षा बच्चों को रोचक दुनिया में प्रवेश कराने में सक्षम होनी चाहिए। ३ से ५ वर्ष तक की उम्र बच्चों की तीव्र गति से सीखने की उम्र होती है। बच्चों के दिमाग का लगभग ८०% विकास ५ वर्ष की अवस्था  तक हो जाता है, अतः उसी के अनुरूप वातावरण का निर्माण आवश्यक है। शिक्षाप्रद खेल, चित्र, आलेख, रंग -बिरंगी चार्ट तथा खिलौने आदि को इनकी शिक्षा का मूल आधार बनाया जा सकता है। बच्चों को रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कहानियां नियमित रूप से सुनाई जाना चाहिए। बच्चों के छोटे-छोटे कार्यों की प्रसंशा करे और उन्हें छोटी-छोटी जिम्मेदारियां सौंपे, जिससे उनका आत्मविश्वास प्रबल हो। बालकों की शिक्षा में सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, दार्शनिक,मनोवैज्ञानिक तथा तकनिकी शिक्षा का समावेश किया जाना चाहिए। शिक्षण के लिए कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को भी आधार बनाया जा सकता है, जैसे :-रूचि का सिद्धांत, व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत तथा स्वतंत्रता का सिद्धांत आदि।प्रत्यक्ष अवलोकन विधि के अंतर्गत बगीचे में ले जाकर बच्चों को फूल, पत्ती,पेड़- पौधों आदि की जानकारी दी जा सकती है। कुछ वस्तुओं को सूंघाकर तथा कुछ को चखाकर भी संबंधित वस्तुओं की जानकारी दी जा सकती है। समूह गतिविधि आधारित कार्य भी बच्चों को बहुत पसंद आते हैं और ऐसे कार्य बच्चों में समरसता के भाव भी भरते हैं। हम देखते हैं कि बच्चों का किसी भी कार्य पर ध्यान केंद्रित लम्बे समय तक नहीं रहता हैं, क्योंकि उनमें स्वभावगत चंचलता और जिज्ञासा के भाव बहुत अधिक होते हैं। अतः बच्चों की एकाग्रता बढ़ाने के लिए हमें नए नए प्रयोग करते रहना आवश्यक हैं। बच्चों को जो भी कार्य सिखाना हैं उसे छोटे-छोटे प्रयोगों में विभक्त कर लिया जाए तो उन्हें नई-नई स्किल सीखने को तो मिलेंगी ही उनकी एकाग्रता को भी बल मिलेगा। बच्चों को गतिविधि देते समय यह ध्यान रखा जाए कि वह उबाऊ और थकाने वाली न हो, कार्य के साथ थोड़ी मस्ती भी जरुरी है। हम सभी जानते हैं कि मानव मन इतना अधिक चंचल होता है  कि प्रति तीन सेकण्ड की गति से अपने विचार परिवर्तित कर लेता है, अतः बालकों के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण करे जो उनका ध्यान भटकने न दे। कार्य के प्रति बच्चों में उत्साह पैदा करने के लिए जो कार्य बच्चों को दे उसकी समय सीमा तय कर दे , जिससे समय से पूर्व कार्य पूर्ण करने का उत्साह वे अवश्य दिखाएंगे। बच्चों की याददाश्त बढ़ाने के लिए कुछ मेमोरी गेम्स भी करवाना आवश्यक है। श्वास आधारित गतिविधि भी प्रतिदिन होना चाहिए, जैसे गुब्बारें फुलाना, सॉप बब्ब्ल्स उड़ाना, बांसुरी बजाना आदि। जिससे बच्चों के दिमाग में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन पहुँच सके। इस प्रकार विविध प्रयोग धर्मिता के आधार पर श्रेष्ठ बाल निर्माण के क्षेत्र में हम अहम् पहल कर सकते हैं। अंत में भावी भविष्य के कर्णधारों के लिए विचार पुष्प समर्पित है :-

बालक सुमन पराग सरस रस-बंध है, बालक वाल्मीकि का पहला छंद है।

बालक परम हंस शिव सुन्दर सत्य है, बालक सरगम कला स्वयं साहित्य है।

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