
मजदूर दिवस पर मजदूर वर्ग के महत्त्व को स्थापित करती स्वरचित कविता प्रेषित है।
कहने को मैं मजदूर दीन हीन सा जीवन जी रहा हूँ,
पर दुनिया की सारी जिम्मेदारियां खुद निभा रहा हूँ।
मैं विधाता से प्राप्त वरदान से अन्नदाता बन गया हूँ,
फिर भी दो वक्त की रोटी के लिए मैं संघर्ष कर रहा हूँ।
पर्वतों का सीना चीरने के लिए हथौड़ा चला रहा हूँ,
लोगों के रास्ते सुगम बनाने का कार्य सतत कर रहा हूँ।
बांध, पुल, कल – कारखाने भी तो मैं ही बना रहा हूँ,
स्वेद कण की बूंदों से मैं पावन स्नान कर रहा हूँ।
धरा पर अनमोल हूं मैं यह विश्वास दृढ़ करता जा रहा हूं,
हर एक वज्रपात को सह कुंदन सा निखरता जा रहा हूं।
आत्मबल की प्रबलता लिए कर्म पथ पर बढ़ता जा रहा हूं,
मानवता ही सच्चा सुख है, यह संदेश देता आ रहा हूं।
छप्पर की कुटिया में रूखी सूखी रोटी खा रहा हूँ,
अपने देश की समृद्धि की चाहत में पसीना बहा रहा हूँ।
देश से भुखमरी मिटाने में अपनी अहम भूमिका निभा रहा हूँ,
धरती मां सोना उगले इसलिए निरंतर हल चला रहा हूँ।
पैरों के छालों और बिवाई से दुनिया की रंगत बडा रहा हूँ,
कंधों पर ढोते हुए बोझ, धरती मां का बेटा बना हुआ हूँ।
ग़ुलामी न आती रास अपने हौसलों पर जी रहा हूँ,
सफलता के लिए प्रगति पथ पर बढ़ता जा रहा हूँ।
डॉ. रेखा मंडलोई ‘ गंगा ‘ इन्दौर
kavya ganga